Shlokas from Shrimad Valmiki Ramayana with Hindi Meaning
यहां पढ़ें श्रीमद् वाल्मीकि रामायण के 11 श्लोक हिंदी अर्थ के साथ | Read here 11 Shlokas from Shrimad Valmiki Ramayana with Hindi Meaning.
श्रीमद वाल्मीकि रामायण भारत की एक महाकाव्य कविता है। यह महर्षि वाल्मीकि द्वारा संस्कृत भाषा में लिखी गई बहुत ही सुंदर कविता है। महर्षि वाल्मीकि को संस्कृत साहित्य में एक अग्रदूत कवि के रूप में जाना जाता है।
धर्म-धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम् ।
धर्मण लभते सर्वं धर्मप्रसारमिदं जगत् ॥
अर्थ- धर्म से ही धन, सुख तथा सब कुछ प्राप्त होता है। इस संसार में धर्म ही सार वस्तु है।
सत्य -सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः ।
सत्यमूलनि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥
अर्थ- सत्य ही संसार में ईश्वर है; धर्म भी सत्य के ही आश्रित है; सत्य ही समस्त भव-विभव का मूल है; सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं है।
उत्साह-उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम् ।
सोत्साहस्य हि लोकेषु न किञ्चदपि दुर्लभम् ॥
अर्थ- उत्साह बड़ा बलवान होता है; उत्साह से बढ़कर कोई बल नहीं है। उत्साही पुरुष के लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
क्रोध – वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित् ।
नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नवाच्यं विद्यते क्वचित् ॥
अर्थ- क्रोध की दशा में मनुष्य को कहने और न कहने योग्य बातों का विवेक नहीं रहता। क्रुद्ध मनुष्य कुछ भी कह सकता है और कुछ भी बक सकता है। उसके लिए कुछ भी अकार्य और अवाच्य नहीं है ।
कर्मफल-यदाचरित कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।
तदेव लभते भद्रे! कर्त्ता कर्मजमात्मनः ॥
अर्थ-मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है। कर्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है।
सुदुखं शयितः पूर्वं प्राप्येदं सुखमुत्तमम् ।
प्राप्तकालं न जानीते विश्वामित्रो यथा मुनिः ॥
अर्थ- किसी को जब बहुत दिनों तक अत्यधिक दुःख भोगने के बाद महान सुख मिलता है तो उसे विश्वामित्र मुनि की भांति समय का ज्ञान नहीं रहता। सुख का अधिक समय भी थोड़ा ही जान पड़ता है ।
निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः ।
सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति ॥
अर्थ- उत्साह हीन, दीन और शोकाकुल मनुष्य के सभी काम बिगड़ जाते हैं, वह घोर विपत्ति में फंस जाता है।
अपना-पराया-गुणगान् व परजनः स्वजनो निर्गुणोऽपि वा ।
निर्गणः स्वजनः श्रेयान् यः परः पर एव सः ॥
अर्थ- पराया मनुष्य भले ही गुणवान् हो तथा स्वजन सर्वथा गुणहीन ही क्यों न हो, लेकिन गुणी परजन (पराया) से गुणहीन स्वजन (अपना) ही भला होता है। अपना तो अपना है और पराया पराया ही रहता है।
न सुहृद्यो विपन्नार्था दिनमभ्युपपद्यते ।
स बन्धुर्योअपनीतेषु सहाय्यायोपकल्पते ॥
अर्थ- सुह्रद् वही है जो विपत्तिग्रस्त दीन मित्र का साथ दे और सच्चा बन्धु वही है जो अपने कुमार्गगामी बन्धु (बुरे रास्ते पर चलने वाले व्यक्ति) की भी सहायता करे।
आढ् यतो वापि दरिद्रो वा दुःखित सुखितोऽपिवा ।
निर्दोषश्च सदोषश्च व्यस्यः परमा गतिः ॥
अर्थ- चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष, मित्र ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा होता है।
वसेत्सह सपत्नेन क्रुद्धेनाशुविषेण च ।
न तू मित्रप्रवादेन संवसेच्छत्रु सेविना ॥
अर्थ- शत्रु और क्रुद्ध महाविषधर सर्प के साथ भले ही रहें, पर ऐसे मनुष्य के साथ कभी न रहे जो ऊपर से तो मित्र कहलाता है, लेकिन भीतर-भीतर शत्रु का हितसाधक हो।
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