कण्वाश्रम : चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली

कण्वाश्रम : चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली

Kanvashram : Birthplace of Emperor Bharat

यहां पढ़िये कण्वाश्रम के बारे में, वह स्थान जो महाराजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली था। सम्राट भरत के नाम से ही हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। | Read here about Kanvashram, the place which was the birthplace of Chakravarti Emperor Bharat, son of king Dushyanta and Shakuntala. Our country was named Bharatvarsha after the name of Emperor Bharat.

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  • 15, Jan, 2022
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कण्वाश्रम : महाराजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली

उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के कोटद्वार शहर से 14 km. दूर भाबर क्षेत्र की मालन घाटी स्थित महर्षि कण्व, विश्वामित्र और दुर्वासा जैसे ऋषि मुनियों की तपस्थली और देश का नाम देने वाले हस्तिनापुर के चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली कण्वाश्रम एक प्रसिद्ध प्रमुख एतिहासिक धरोहर व धार्मिक स्थान है, जो हेमकूट और मणिकूट पर्वतों की गोद में स्थित ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थल है। कण्वाश्रम के बारे में यह माना जाता है कि इस स्थान पर कण्व ऋषि का आश्रम था, जिसका उल्लेख पुराणों में विस्तार से मिलता है। महाकवि कालिदास रचित अभिज्ञान शाकुंतलम में भी मालिनी नदी के तट पर स्थित कण्वाश्रम का उल्लेख है।

 

ग्रंथो व पुराणों में कण्वाश्रम

महाभारत एवं स्कन्द पुराण में भी कण्वाश्रम का उल्लेख है। महाभारत में इसे भरत का जन्मस्थान कहा गया है। वहीं स्कन्द पुराण में इसे ऐसा तीर्थ स्थल माना गया है जिसके दर्शन प्रत्येक श्रद्धालु के लिए अनिवार्य था। मौर्य कालीन यूनानी यात्री मेगस्थनीज ने कण्वाश्रम को ईरिनेस नदी के किनारे बताया जिसकी पहचान कालान्तर में मालिनी नदी के रूप में हुई। हालांकि कण्वाश्रम की स्मृति को जीवित रखने का सर्वाधिक श्रेय कालिदास को जाता है जिन्होंने अपने संगीत नाटक ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ में कण्वाश्रम को अमर कर दिया। इस स्थान का सम्बन्ध बौध धर्म से भी रहा है। कोटद्वार के निकट मोरध्वज में बौध संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। १२वी. शताब्दी के अंत में जब मोहम्मद गौरी ने उत्तर भारत में आक्रमण किया था तब हरिद्वार के साथ कण्वाश्रम को भी ध्वस्त कर दिया था।

 

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि समझने से पहले कण्वाश्रम की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, व धार्मिक पृष्ठभूमि को समझना आवश्यक है। कण्वाश्रम का सम्बन्ध ऋषि कण्व से है। जिनका समय आज से लगभग 5900 वर्ष पूर्व माना जाता है, इस इतिहास की पृष्ठभूमि को समझने हेतु द्वापर युग के इतिहास में जाना होगा। भगवान कृष्ण की मृत्यु के दिन से 'युधिष्ठिर संवत' अथवा 'कलिसंवत' का आरम्भ होता है। उसी दिन से कलियुग का प्रारम्भ व द्वापर युग का अन्त माना जाता है। युधिष्ठिर से 18 पीढी़ पूर्व महाराजा दुष्यन्त हुए उनके समय में महर्षि कण्व हुए जो कि आज से 5900 वर्ष लगभग पूर्व की अवधि है, उस वक्त कण्वाश्रम में एक गुरूकुल पद्धति का विश्वविद्यालय था तथा ऋषि कण्व इस आश्रम के कुलपति थे। इस अवधि में एक अनोखी ऐतिहासिक घटना के कारण इस स्थल को बहुत ख्याति प्राप्त हुई। यह घटना थी इस आश्रम के तपस्वी विश्वामित्र व अप्सरा मेनका के प्रणय से उत्पन्न व परित्यक्त कन्या शकुन्तला का जन्म व उससे चक्रवर्ती राजा भरत का जन्म। इस प्रकार का वर्णन महाभारत में महर्षि व्यास द्वारा तथा पुराणों में भी है। 

तो चलिए जानते हैं कण्वाश्रम व उससे जुड़े इतिहास के बारे में… 

 

कण्वाश्रम का इतिहास

कण्वाश्रम, उत्तराखंड में मालिनी नदी के तट पर स्थित ऋषि कण्व की धरोहर है। यहाँ आकर मन में प्राचीन भारतीय साहित्यों एवं शास्त्रों में चर्चित कई कथाएं सजीव हो उठती हैं। फिर वह कथा चाहे शकुंतला की हो अथवा उनके माता-पिता विश्वामित्र एवं मेनका की या पुरुराज दुष्यंत की या फिर चक्रवर्ती सम्राट भरत के जन्मस्थल की।

एक समय की बात है, हिमालय की तलहटी पर ऋषि विश्वामित्र का आश्रम था। एक बार ऋषि विश्वामित्र की कठोर तपस्या से स्वर्ग के राजा इंद्र अत्यंत विचलित हो गए थे। उनकी तपस्या भंग करने के लिए इंद्र ने स्वर्ग की अप्रतिम सुन्दरी, अप्सरा मेनका को धरती पर भेजा। मेनका विश्वामित्र की तपस्या भंग कर उन्हें अपने मोहपाश में बांधने में सफल हो गयी। विश्वमित्र व मेनका अप्सरा के प्रणय संबंधों से उत्पन्न कन्या शकुंतला को मेनका ऋषि विश्वामित्र के आश्रम (जहां आज सिद्धबलि हनुमान मंदिर है) के समीप स्थित ऋषि कण्व के आश्रम के आस-पास जंगल में छोड़ वापस स्वर्ग चली गई थी।

तपस्या में लीन महर्षि कण्व ने जब बच्चे के रोने की आवाज सुनी, तो वहां पहुंचे। उन्हें वहाँ एक सुंदर नवजात कन्या दिखी जो शाकुंत पक्षियों से घिरी थी। महर्षि कण्व बच्ची को आश्रम ले आए व उसको शकुंतला नाम दिया और उसका लालन-पालन किया। शकुंतला जंगल के पशु-पक्षियों के सानिध्य में बड़ी हुई।

शकुंतला व दुष्यंत की कथा महाकाव्य महाभारत में कही गयी है। कवि कालीदास ने अपने संस्कृत नाटक ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ में इस कथा को जीवंत किया।

निर्जने तु वने यश्माच्छकुन्तेः परिपालिता।

शकुन्तलेति नामाश्स्याः कतं चापि ततो मया ।।    

-अभिज्ञानशाकुन्तलम प्रथम अंक

"क्योंकि उसे घनघोर जंगल में कोलाहल करते पंछियों के मध्य पाया गया इसलिए उसका नाम शकुन्तला पडा। "

एक दिन हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत कण्वाश्रम के आसपास के वन में शिकार करते हुए भटक गए और कण्वाश्रम जा पहुंचे। वहां उनकी भेंट शकुंतला से हुई। कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा पर थे। शकुन्तला ने राजा दुष्यंत की आवभगत की। वे उसके संस्कारों व सुंदरता से प्रभावित हुए और दोनों में प्रेम उत्पन्न हुआ, उन्होंने शकुंतला से गंधर्व विवाह किया। दुष्यंत ने वापिस जाते हुए शकुन्तला को अंगूठी पहनाई और कहा कि हस्तिनापुर आकर मिले।

चक्रवर्ती सम्राट 'भरत' का जन्म

कुछ समय पश्चात शकुंतला ने एक अत्यंत सुंदर व तेजस्वी बालक को जन्म दिया। जिसका नाम भरत रखा गया। भरत को सर्वदमन भी कहा जाता है क्योंकि कण्वाश्रम में उनका वर्चस्व था। वीर बालक का बचपन “कण्वाश्रम” में सिंह, शावकों से क्रीड़ा एवं ज्ञानार्जन में व्यतीत हुआ। भारत पर लिखी प्रत्येक इतिहास की पुस्तक इस स्तोत्र से आरम्भ होती है-

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् ।

वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः ।।

इसका अर्थ है, "वर्षं अर्थात् वह देश, जो समुद्र के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण में है, भारतवर्ष है जहां भरत के वंशज निवास करते हैं। "

उधर शकुंतला राजा दुष्यंत के विरह में व्याकुल थी। दुष्यंत ने वापिस जाते हुए शकुन्तला को जो अंगूठी पहनाई थी वह एक दिन नदी में गिर गई और उसे मछली निगल गई। जब शकुन्तला राजा से मिली तो दुष्यंत ने उसे पहचाना ही नहीं। उधर एक मछुवारे को, उस मछली के पेट से वह अंगूठी मिली, उसने अंगूठी बेचने की कोशिश की तो राजा के सिपाहियों ने उसे पकड़ कर राजा दुष्यंत के सामने पेश किया। राजा ने जब अंगूठी देखी तो उन्हें सब याद आ गया। शकुन्तला की खोज की गई और राजा दुष्यंत ने उसे अपनी रानी बना लिया।

 

सम्राट भरत के नाम पर देश का नाम 'भारतवर्ष'

उनके पुत्र भरत ने बड़े होकर राज्याभिषेक के उपरान्त इस विशाल भूखंड को एकीकृत कर इस राज्य पर राज किया और ये बालक चकक्रवर्ती सम्राट “भरत” के नाम से जाना गया। भरत का 'चक्रवर्ती सम्राट' का पद प्राप्त करना एक ऐतिहासिक घटना है। इन्हीं पराक्रमी सम्राट भरत के नाम पर देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।

 

कण्वाश्रम के अस्तित्व की पुनः खोज

आजादी के बाद जब कण्वाश्रम को ढूंढने के प्रयास शुरू हुए तो 1955 में एक छायाचित्रकार मालिनी नदी के सम्पूर्ण किनारे की यात्रा कर रहा था। उसकी यात्रा के समय कण्वाश्रम के अस्तित्व की पुनः खोज हुई। पंडित सदानंद जखमोला, ललिता प्रसाद नैथानी और पौड़ी के तत्कालीन जिलाधिकारी हरीश सिंघल ने मालन नदी के किनारे चौकीघाट के पास कण्वाश्रम को प्रमाणित किया व अविभाजित यूपी सरकार ने वर्ष 1956 में यहां महर्षि कण्व, मेनका की पुत्री शकुंतला और उनके पुत्र भरत के परिवार का स्मारक बनाया। साहित्यिक स्त्रोतों से पुष्टि होती है कि कण्वाश्रम उस स्थान पर स्थित था जहां मालिनी नदी पहाड़ों से आकर मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती है। इसकी पहचान सर्वप्रथम चौकीघाट के रूप में हुई।

 

कण्वाश्रम के प्रमाण

कोटद्वार भाबर क्षेत्र की प्रमुख ऐतिहासिक धरोहरों में कण्वाश्रम सर्वप्रमुख है जिसका पुराणों में विस्तृत उल्लेख मिलता है। हजारों वर्ष पूर्व पौराणिक युग में जिस मालिनी नदी का उल्लेख मिलता है वह आज भी उसी नाम से पुकारी जाती है तथा भाबर के बहुत बड़े क्षेत्र को सिंचित कर रही है। इस क्षेत्र की प्राचीनता के संबन्ध में अन्य पौराणिक प्रसंगों का भी उल्लेख है। पाण्डवों के पूर्वज शकुन्तला और भरत तत्कालीन कुलिन्द जनपद के निवासी थे तथा यहां के कुलिन्दराज राजा सुबाहु से पाण्डवों की विशेष मैत्री थी। कण्वाश्रम के कुछ ऊपर कांण्डई गांव के पास आज भी एक प्राचीन गुफा विद्यमान है जिसमें ३०-४० व्यक्ति एक साथ निवास कर सकते हैं। ईड़ा गांव के पास शून्य शिखर पर आज भी संन्यासियों का आश्रम है। चौकीघाट से कुछ दूरी पर किमसेरा (कण्वसेरा) की चोटी पर भग्नावशेष किसी आश्रम या गढ़ का संकेत देते हैं। महाकवि कालिदास द्वारा रचित "अभिज्ञान शाकुन्तलम" में कण्वाश्रम का जिस तरह से जिक्र मिलता है वे स्थल आज भी वैसे ही देखे जा सकते हैं।

 

भौगोलिक पृष्ठभूमि

हिम से ढकी हिमालय पर्वत की अन्नत पर्वत श्रेर्णियों के दक्षिण मे समान्तर श्रेर्णियों मे स्तिथ हैं शिवालिक पर्वत श्रेणियां (शिव की जटायें) जो कि साल के पेड़ों से बने घने जंगल से ढकी हुई है। घने जंगलो से ढके इन पर्वतों के मध्य मे बहती है पवित्र मालिनी नदी। आश्रम मालिनी नदी के बाएँ तट पर घने जंगल के बीच है। बहुत सुंदर हरी भरी जगह है जहाँ कलकल करती मालिनी नदी की आवाज़ सुनाई देती रहती है।

आज से लगभग 3900 वर्ष पूर्व इस नदी के तट पर स्तिथ था कण्व ऋषि का विश्व विख्यात आश्रम, जिसे “कण्वाश्रम या कण्व का आश्रम” भी कहते हैं।

आश्रम के समीप एक तीव्र ढलान की पहाड़ी है जिसे शान्तल्या धार कहा जाता है। कदाचित यह शकुंतला धार का अपभ्रंश शब्द हो। स्थानीय भाषा में धार का अर्थ है ढलुआं पहाड़ी।

1991 एवं 2011, इन दोनों वर्षों में यहाँ भरपूर वर्षा हुई थी जिसके कारण मिट्टी बह गयी एवं कुछ प्राचीन शिल्पकारियाँ धरती से बाहर प्रकट हो गयीं। पुरातत्वविदों का मानना है कि ये शिल्पकारियाँ 9-12वीं शताब्दी के मंदिरों के अवशेष हैं। इन मंदिरों को प्रकृति ने नष्ट किया या मानवी हस्तक्षेप ने, यह कोई नहीं जानता।

कण्वाश्रम केदारनाथ एवं बद्रीनाथ के प्राचीन तीर्थ मार्ग पर स्थित था। प्राचीन अभिलेखों के अनुसार, केदारनाथ एवं बद्रीनाथ की यात्रा पर निकले तीर्थ यात्रियों का यह अनिवार्य विश्राम स्थल था। जंगलों एवं नदियों को पार करते हुए यह तीर्थयात्रा पैदल ही पूर्ण की जाती थी।

समय ने कण्वआश्रम के भौतिक अस्तित्व को तो समाप्त कर दिया पर अपनी लेखनी से हज़ारों वर्ष बाद भी कण्वआश्रम के सजीव चित्रण से महाकवि कालीदास, जिन्हें उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थितियों का सम्पूर्ण ज्ञान था, ने अपनी कृति "अभिज्ञान शाकुन्तलम्" में कण्वआश्रम, मालिनी तथा उससे जुड़े समस्त पात्रों को अमर बना दिया।

 

मालिनी नदी के किनारे बसा कण्वाश्रम

कण्वाश्रम मालिनी नदी के बाएँ तट पर बनाया गया था। ऐसी नदी जो अब भी हिमालय के शिवालिक पर्वतश्रंखला के बीच से धीरे-धीरे बहती हुई रावली में गंगा से मिल जाती है। कण्वाश्रम के सटीक स्थान की जानकारी नहीं है। किन्तु इतना अवश्य हैं कि यह मालिनी नदी के समीप, एक ऊंचे पठार पर स्थित था जहां कई हिरण आया करते थे।

ऐसा माना जाता है कि अन्य मुख्य नदियों के विपरीत मालिनी नदी ने अपनी दिशा नहीं बदली। यह अब भी अपने किनारे बसे गाँवों एवं खेतों का पोषण करती है। कदाचित मालिनी नदी का नाम मालू अथवा मालन नामक बेल के ऊपर रखा गया है जिस पर ग्रीष्म ऋतु में श्वेत पुष्प खिलते हैं। यह बेल मालिनी नदी के किनारे बहुतायत में पाए जाते हैं।

 

आध्यात्मिक केंद्र व गुरूकुल

विशाल भूभाग में फैले महर्षि कण्व का आश्रम आज से कई हजार शताब्दी पूर्व एक विश्व विख्यात आध्यात्मिक केंद्र व एक आदर्श गुरूकुल महाविद्यालय था, जहां दस हजार विद्यार्थी कुलपति महर्षि कण्व से शिक्षा ग्रहण करते थे। कण्वाश्रम शिवालिक की तलहटी में मालिनी नदी के दोनों तटों पर स्थित छोटे-छोटे आश्रमों का प्रसिद्ध विद्यापीठ था, जिसमें सिर्फ उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा थी। आश्रमवर्ती योगी एकान्त स्थानों में कुटी बनाकर या गुफाओं के अन्दर रहते थे।

 

ऋषी-मुनियों की तपस्थली

यह स्थान ऋषी मुनियों की तपस्थली भी था, जहॉं वे साधना में लीन, मोक्ष की प्राप्ति के लिए कठोर तप करते थे।

 

वार्षिक बसंत पंचमी मेला

बसन्त पंचमी हिन्दू समाज का प्रमुख पर्व है। कण्वाश्रम में हर वर्ष बसंत पंचमी के दिन यहाँ वसंतोत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। यहाँ तीन दिवसीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है।

 

वर्तमान में कण्वाश्रम

मालिनी नदी के तट पर कण्वाश्रम, जो किसी काल में एक समृद्ध गुरुकुल था, आज एक छोटा सा आश्रम है। इस नवीन आश्रम में पांच प्रतिमाएं हैं – कण्व ऋषि, कश्यप ऋषि, शकुंतला, दुष्यंत एवं पांचवी प्रतिमा भरत की है जिन्हें शेर के दांत गिनते दिखाया गया है।

कण्वाश्रम के आसपास के वनों में हिरण, तेंदुए, चीतल, बन्दर, लंगूर इत्यादि स्वच्छंद घूमते दिखाई देते हैं। हाथियों के झुण्ड नदी के समीप देखे जा सकते हैं। विभिन्न पक्षि उड़ते दिखते हैं, कदाचित कण्व ऋषि ने शकुंतला का नामकरण इन्हीं पक्षियों पर किया था क्योंकि वो पक्षियों के बीच पायी गयी थी व उन्हीं के बीच जीवन बिताते हुए बड़ी हुई। हिमालय की तलहटी में स्थित यह स्थान कई फलदार वृक्ष, औषधीय पौधे, भरपूर भोजन व जल से परिपूर्ण होने के कारण आश्रम के लिए सर्वाधिक उपयुक्त स्थान है। यहाँ की शुद्ध जलवायु के कारण यहाँ सैर करने, प्रकृति का आनंद उठाने अथवा एकांत में बैठने के लिए उचित स्थान है। इसलिए यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि कण्वाश्रम यहाँ क्यों स्थापित किया गया था। हो सकता है कालीदास भी अपनी महान कलाकृति रचने से पूर्व कभी यहाँ रहे हों। स्थानीय सूत्रों के अनुसार वनों के भीतर पैदल मार्गों को बंद कर दिया गया है ताकि वनों की हरियाली बढ़ सके। तभी से यहाँ वन्य प्राणियों की संख्या में वृद्धी हुई है।है।

भारत सरकार द्वारा स्वच्छ प्रतिष्ठित स्थान के अंतर्गत, 2018 में सर्वश्रेष्ठ विरासती स्थलों की सूची जारी की गयी थी। कण्वाश्रम इस सूची के प्रथम १० स्थानों के भीतर है।

 

राष्ट्रीय एकता का प्रतीक : कण्वाश्रम

कण्वाश्रम वो भूमि है जो कि इस महान राष्ट्र भारत की आत्मा है और उस से जन्मी उत्सर्जन का प्रतीक है। इस स्थान को उसकी भव्य ऊंचाइयों तक पहुँचाना, इस देश के प्रत्येक नागरिक का सपना तथा कर्तव्य होना चाहिए। विश्व के अनेकों राष्ट्र में ऐसे स्मारक है जो कि उनकी राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है और उस राष्ट्र के हर नागरिकों को प्रेरित करता है। जनमानस तथा प्रतिष्ठित व्यक्ती इन स्मारक स्थलों में जा, अपना शीश झुका उस राष्ट के निर्माताओं को श्रद्धांजलि देते है। पर हमारे राष्ट्र में ऐसा कोई स्मारक नहीं है जो इस राष्ट्र के निर्माता “चक्रवर्ती सम्राट भरत” को समर्पित हो। देर से सही, पर ऐसे कदम उठाये जा सकते है कि आगे आने वाली पीढ़िया इस विशाल भू-भाग को एकीकृत रखे जैसा कि चक्रवती सम्राट भरत ने किया था। ताकि सब इस देश को आदर से भारतवर्ष कह कर सम्बोधित करे।

 

कण्वाश्रम के आसपास दर्शनीय स्थल

 

सिद्धबलि मंदिर (गुलर झाला) - विश्वामित्र की तपस्थली, जहां आज हनुमान जी का सिद्ध पीठ मंदिर स्थित है ।

जगदेव मंदिर – यह मंदिर बहुत पुराना नहीं है। पत्थरों को देख प्रतीत होता है कि यह मंदिर प्राचीन मंदिर के ऊपर निर्मित किया गया है।

 

सहस्त्रधारा – सहस्त्रधारा का अर्थ है हजार जलधाराएं। इस शब्द का प्रयोग अधिकतर वहां किया जाता है, जहां कई जलधाराएं मिलकर एक बड़ी धारा बनाती हैं। कण्वाश्रम से, मालिनी के प्रवाह के विपरीत दिशा में 4 km. आगे जाकर आप देख सकते है, किस प्रकार ऊंची ऊंची चट्टानों से जल की बूँदें मालिनी नदी में गिरती हैं।

 

शान्तल्या धार – यह सीधी ढलान की एक पहाड़ी है। कहा जाता है कि दुष्यंत द्वारा त्यागे जाने के उपरांत शकुंतला ने ६ वर्ष यहाँ व्यतीत किये थे। यह स्थान, जल प्रवाह के विपरीत दिशा में, कण्वाश्रम से १८ की.मी. आगे स्थित है जो मालिनी नदी के उद्गम के समीप है।

 

चंदखल – मालिनी नदी का उद्गम स्थल

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