भारत के सबसे बड़े मंदिर, श्री रंगनाथस्वामी मंदिर का इतिहास

भारत के सबसे बड़े मंदिर, श्री रंगनाथस्वामी मंदिर का इतिहास

History of India's Largest Temple, Sri Ranganathaswamy Temple

यहाँ पढ़िये भारत के सबसे बड़े मंदिर, श्री रंगनाथस्वामी मंदिर (श्रीरंगम मंदिर) का इतिहास। Read here the history of India's largest temple, Sri Ranganathaswamy Temple (Srirangam Temple).

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  • 20, Mar, 2022
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श्रीरंगम मंदिर का इतिहास 

(History of Srirangam Temple) 

श्री रंगनाथस्वामी मंदिर भगवान रंगनाथ को समर्पित एक हिंदू मंदिर है। भगवान रंगनाथ को श्री विष्णु का ही अवतार माना जाता है। यह मंदिर भारत के तमिलनाडु राज्य के तिरुचिरापल्ली के श्रीरंगम में स्थित है इसलिए इसे श्रीरंगम मंदिर (Srirangam Temple) भी कहा जाता हैं। श्रीरंगम मंदिर तमिलनाडु में बहने वाली पावन नदी, कावेरी नदी से एक ओर से घिरा है और वहीं दूसरी तरफ से कोलिदम (कोलेरून) से घिरा हुआ है।

दक्षिण भारत का यह सबसे शानदार वैष्णव मंदिर है, जो किंवदंती और इतिहास दोनों में समृद्ध है। यह मंदिर कावेरी नदी के द्वीप पर बना हुआ है।

श्री रंगनाथस्वामी मंदिर (श्रीरंगम मंदिर) का इतिहास

मंदिर का इतिहास हमें 8वीं से 16वीं शताब्दी के बीच का दिखाई देता है और मंदिर से जुड़ा हुआ पुरातात्विक समाज भी हमें इसके आस-पास दिखाई देता है। प्राप्त शिलालेखों से यह ज्ञात हुआ है कि इस मंदिर की शैली चोल, पांड्या, होयसाल और विजयनगर साम्राज्य के राजवंशों से संबंधित है। इन सभी ने यहां कावेरी नदी के पास में और तिरुचिरापल्ली पर कभी शासन किया था।

रंगनाथन की प्रतिमा पहले जहाँ स्थापित की गयी थी, वहाँ बाद में जंगल बन चूका था। इसके कुछ समय बाद चोल राजा जब शिकार करने के लिए तोते का पीछा कर रहे थे तब उन्होंने अचानक से भगवान की प्रतिमा मिल गयी। इसके बाद राजा ने रंगनाथस्वामी मंदिर परिसर को विकसित कर दुनिया के सबसे विशाल मंदिरों में से एक बनाया।

इतिहासकारों के अनुसार, जिन साम्राज्यों ने दक्षिण भारत में राज किया (मुख्यतः चोल, पांड्या, होयसाल, नायक और विजयनगर), वे समय-समय पर मंदिर का नवीकरण भी करते और उन्होंने तमिल वास्तुकला के आधार पर ही मंदिर का निर्माण करवाया था। इन साम्राज्यों के बीच हुए आंतरिक विवाद के समय भी शासको ने मंदिर की सुरक्षा और इसके नवीकरण पर ज्यादा ध्यान दिया था। कहा जाता है कि चोल राजा ने मंदिर को सर्प सोफे उपहार स्वरुप दिए थे।

कुछ इतिहासकारों ने राजा का नाम राजमहेंद्र चोल बताया, जो राजेन्द्र चोल द्वितीय के सुपुत्र थे। लेकिन यह बात भी बहुत रोचक है कि बाद के शिलालेखो में इनका कहीं भी उल्लेख दिखाई नहीं देता। ना ही चौथी शताब्दी में इनका उल्लेख दिखाई देता है और ना ही नौवीं शताब्दी में।

1310 से 1311 में जब मलिक काफूर ने साम्राज्य पर आक्रमण किया, तब उन्होंने देवताओं की मूर्ति भी चुरा ली और वे उन्हें दिल्ली लेकर चले गए। इस साहसी शोषण में श्रीरंगम के सभी भक्त दिल्ली निकल गए और मंदिर का इतिहास बताकर उन्होंने सम्राट को मंत्रमुग्ध किया। उनकी प्रतिभा को देखकर सम्राट काफी खुश हुए और उन्होंने उपहार स्वरुप श्रीरंगम की प्रतिमा दे दी। इसके बाद धीरे-धीरे समय भी बदलता गया।

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